चित्र:साभार-विजय प्रताप सिंह
आज चलो ना मेरे गांव मेंएक कच्ची सड़क पर
जिसपे धूल उड़ा करती है
ठंड की पछुआ भी
इन्ही सडकों पर दिखा करती है
किनारे किनारे खेतों में फसलें,
खेत महकते हैं सड़क से गुजरते,
अरहर के दाल खाते हो ना
मैंने अरहर के पौधे की जवानी देखी है
खड़े होते हैं सारे
कुदरती डीओडरेंट लगाये
आपस में ठिठोली करते हैं
मैंने इनकी मस्ती देखी हैं
एक बगिया है आम की
इसी सड़क किनारे
एक पाठशाला,एक पोखर
दोनों साथ साथ हैं
छोटे छोटे बच्चे
बोरे पर बैठकर
पढ़ते हैं
पोखर में कागज़ की नाव चलाते हैं
खेल खेल में चिल्लाते है
बच्चों की किलकारी
हवा के झोंको पर बैठ
मेरे बरामदे तक
कभी तेज़ तो कभी मद्धिम हो आया करती है
मेरे कमरे के बाहर
घर से लगे खेत भी तो है
उसमे लगे मक्के के पत्तों
पर कभी बारिश की बूँदें गिरती है ना
तो हर ओर संगीत के साज़ बजते हैं
आ जाओ मेरे साथ
ले चलता हु तुम्हे
सड़क के पास वाली
घनी बगिया में
लटकी हुई एक टहनी पर
हम भी लटकेंगे!!!
mere bachapan ki yaad dila di aapane .bahut sunder rachana.
जवाब देंहटाएंआह!! बहुत मासूम अभिव्यक्ति!!
जवाब देंहटाएंलो जी आ गए, अब ले चलो अपने गांव :-)
जवाब देंहटाएं