गणित सी उलझी ज़िन्दगी
किसी पाठ से कम कहाँ
होशियार बचों को मौके है
पढ़ने का पर उनका क्या
जो पढ़ते नहीं समझते हैं?
ख़ुशी क्या ?????
एकांत कमरों की
कानो में गूंजने वाली
सीं सीं की आवाज
या कभी किसी पब
के घोड़ीनुमा कुर्शी पर
टांग लटकाए पीते-पीते
नसों में घुलती आवाज़
धम धम डीजे की!
एक ही चोले के अन्दर
ना जाने कितने इन्सान पाले हैं मैंने
खुशियों की नोचा-नोची
क्नाट प्लेस से सिवान के
गांव तक झूलती
जेठ की धूप में दूर क्षितिज
पर चिलचिलाती चमक
जैसी दूर ही भागे!
बस ख़याल है!