एक मुद्दत बीता सा लगता था
वरना ये दो चार साल क्या होते है
लिहाज़ के मारे
दिन ब दिन हमने रोज़ निकाले
वो कुछ लम्हें जिनके राज़दार
बस हम तुम
पर इन सालों में तुम्हारा तो नहीं पता
मेरा बहकने का सिलसिला मुझे याद है
उन हसीन लम्हों का होकर!
आज रात मौका भी आया
तो हम अकेले ही लरज़ते रहे
तुम निकल गई आगे बस हम अटके रहे
ना जाने कितने सवाल थे मेरे
तुमसे रूबरू हो पूछने को
एक खींझ थी,चोट खाए
अरमान थे सब ने मिल कर
सवालों के पुलिंदे बनाये थे
पर जब सामना तुमसे हुआ
मैंने,खुद ने खुद को धोखा दिया
तुमसे मिन्नत कर
और तो और अपने ही बनाये सवालों को ज़लील कर
उन्हें तुम्हारे सामने ही नहीं रखा
पागल सा तुम में वही ढूंढता रहा
जो तुमसे पाया करता था
तुम्हारे जाने के बाद भी
ज़बरदस्ती खुद को यकीन दिलाता रहा
तुम वही हो तुम वही हो तुम वही हो
रात बीती सहर का अजान सुरीला नहीं था
नींद जो भागी थी उन्ही लम्हों की खोज में
लोटी भी हैरान परेशान
मुझे देखा उसने सुबह ७ बजे तक
खुद को दिलासा देते हुए!
नींद ने भी फटकारा,कहा
मैं आई हूँ आगोश में आओ
उसको झटक दिया दिहाड़ी की फिक्र मैं
अनायास ही ज़हन कौंधा
तुम निकल गई आगे हम ही क्यों अटके रहे???
अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा है आपने शुक्रिया
जवाब देंहटाएंअनायास ही ज़हन कौंधा
जवाब देंहटाएंतुम निकल गई आगे हम ही क्यों अटके रहे???
बहुत खूब स्वागत है और शुभकामनायें