सर्दी से सीली हुई रजाई
छत पर सुखाने धूप में,
मैं भी जाया करता था छत पर,
अब सालों बाद वो रजाई तो नहीं
पर कुछ सीली हुई सी यादें जरूर हैं!
अलसाये हुए होते दिन भी थोड़े-थोड़े,
सूखती रजाई की तह पे लेट,
ऑंखें थोड़ी खुली,थोड़ी मूंदी हुई सी
कुछ हसरतें भी सुखाया करते थे!
वो मालिस करती धुप
गुदगुदी और शुरूर दोनों भरा करती थी,
और हम नई जवानी के किनारे
अल्हड़ हो,सुखाते-सखाते ना जाने
किसकी गेसुओं में खो जाया करते थे!
सर्दी का गाँव भी बड़ा निराला था!
पीले-पीले फूल होते थे सरसों के,
बथुआ,पालक,मटर के लते,लगाते
पीले पर हरे का तड़का,
दिखता था ये सब साफ-साफ,
खेतों के बीच बसे मेरे घर की छत से.....
दिन तो अब भी होतें हैं पर वो नहीं
जो होते थे फागुन की धूप में छत पर.....
अच्छा लगा अंदाजे बयां
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!कहाँ गईं वे रजाइयाँ,वे फाल्गुन की धूप?
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
बढ़िया रचना . बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा फिर से गाँव मे पहुँच कर
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब,,,,,,,,,,,
जवाब देंहटाएंअब सालों बाद वो रजाई तो नहीं
पर कुछ सीली हुई सी यादें जरूर हैं!
अलसाये हुए होते दिन भी थोड़े-थोड़े,
सूखती रजाई की तह पे लेट,
ऑंखें थोड़ी खुली,थोड़ी मुंदी हुई सी
कुछ हसरतें भी सुखाया करते थे!
वाह जनाब
नज़्म का मज़ा आ गया
मुबारक !
बहुत अच्झा............
जवाब देंहटाएंmarmsparshi rachna hai..
जवाब देंहटाएंसर्दी का गाँव भी बड़ा निराला था!
जवाब देंहटाएंपीले-पीले फूल होते थे सरसों के,
बथुआ,पालक,मटर के लते लगाते
सच में अब वह बात नहीं है ...सुन्दर यादे दिलाती यह रचना पसंद आई
अजय जी,Mired Mirage,महेंद्र जी,एम वर्मा जी,फिरदौस जी,अलबेला जी,ओम जी,पवन जी,रंजना जी टिप्पणी के लिए आप सभी का शुक्रिया!!!
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