शुक्रवार, 28 मई 2010

द्रोपदियों का गांव

भूख का दर्द कैसा होता है,आप में से कुछ समझेंगे कुछ नहीं!समझेगा वही जो भूख को चबाया होगा!भूख चबाना दो दिन,चार दिन तक तो संभव है,उसके आगे तो जीने की जुगत लगानी ही होगी क्यूंकि भूख जीत जाती है, तमाम सिधान्तों पर, विचारों पर और बुनियादी चीज जो नजर आती है, वो सिर्फ और सिर्फ भूख होतीहै!लद्दाख से तिब्बत तक के इलाके में ज़िन्दगी बहुत मुश्किल है!यहाँ सर्दी इन्सान तो क्या ज़मीन को सिकोड़ देती है,इस सिकुडन में रोटी की दिक्कत है,ऊपर से समतल ज़मीन का ना होना!ना घर के लिए जगह होती है ना दाना-पानी उगाने की जगह!खैर वहां के लोगो ने ऐसे में ही अनुकूलन बना लिया है!इस अनुकूलन के भी कुछ निहितार्थ हैं!दरअसल लोग यहाँ रोटी, ज़मीन और परिवार के लिए घर में एक द्रोपदी रखते हैं!कोई भी द्रोपदी हो वो मजबूरी की ही प्रतीक है!तब मां के वचन का पालन करना था पर तब वचन की विवशता थी आज ये अलग है!आज द्रोपदी किसी वचन को विवश नहीं है!ये द्रोपदी परम्परा का निर्वहन कर रही है! लद्दाख-तिब्बत पट्टी में समतल नहीं, पहाड़ है! यहाँ खेती-बाड़ी की बात तो दूर झोपड़ी डालने तक की जगह नहीं होती, ऐसे में यहाँ लोगों ने कालांतर से ही जीवन की एक नई शैली विकसित कर ली!शैली है एक परिवार के सभी भाइयों की एक पत्नी!इसका कारण ये है की अगर पत्नी एक होगी तो बंटवारे की समस्या नहीं आयेगी!चूँकि सबकी पत्नी एक तो सबके बच्चे एक, ऐसे में बंटवारे का प्रश्न नहीं आयेगा!बंटवारा तो तब होगा ना जब सबका अलग घर-परिवार होगा!अब यहाँ तो समस्त भाइयों की पत्नी एक तो बाप में फर्क कौन करे और एसा करना मुमकिन भी नहीं!ऐसे में बंटवारे का गणित खुद ब खुद दम तोड़ देता है और ज़िन्दगी पहले से ही खींचे ढर्रे पर चलती रहती है,चलती रहती है!  

बुधवार, 26 मई 2010

यूँ ही खाली-खाली

खाली-खाली वक़्त में बैठा
खाली-खाली वक़्त को कोसना
खाली मैं भी वक़्त भी खाली
संभाले किसे कौन
खाली होना भी तो ख्याली है
वरना मारता एक तमाचा
वक़्त को या वक़्त ही मारता 
मुझे तमाचा
कुछ तो होता
बस हो जाता
क्यूंकि खाली होना किसे सुहाए
पता नहीं वक़्त को खाली होना गवारा कैसे
मैं तो परेशान हो जाता हूँ
और कुछ खाली लोग भी है
उन्हें वक़्त नहीं,मैं ही खाली नज़र आता हूँ!

शनिवार, 22 मई 2010

एक नया घर मिला है,दुआवों की ज़रुरत है!

समाचार की दुनिया एक ज़िन्दगी है!इस ज़िन्दगी को जीना पड़ता है!यहाँ अगर जीना नहीं आया तो मौत होती है तिल-तिल कर एड्स की तरह शायद!समाचार से अलग हुए तो समाचार आपसे भागने लगता है!..वो कहावत अपने सुनी है ना अगर आप विद्या से दूर भागोगे तो विद्या आपसे दूर भाग जाएगी...!दरअसल ये कहावत हमें बचपन में सुनने को मिलती थी जब पढ़ने के लिए हमारे परिजन हमें सुनाते थे!इस को मैने समाचार के सन्दर्भ में भी महसूस किया है!
                 तमाम कलेसों  के बीच कई बार को एसा लगता है की जो ये सामान्य जिंदगी है वो समाचार की भिन्न ज़िन्दगी पर भारी पड़ने लगती है!वजह साफ है मैने सामान्य ज़िन्दगी में ही आंखे खोली, पहले रेंगा बाद में खड़ा हुआ और दौड़ने लगा!रिश्तों में उलझा, रिश्ते मुझ पे चढ़ बैठे!या यूँ कहें में माया का हिस्सा हो गया जो अब तक मुझ पर पर भारी है और आखिरी साँस तक यही रहेगा,माया से उबरना  इश्वर के लिए आसान नहीं रहा में तो एक इन्सान हूँ!खैर मुद्दे पर लौटें----हाँ,मैं ये कह रहा था की एक और सामानांतर ज़िन्दगी ने भी मुझे अपने अन्दर समाहित किया!यहाँ बस खबर, खबर, खबर इसी में जियो, इसी में खाओ, इसी में पियो, इसी में जियो, इसी में मरो तब तो ये अपने अन्दर आपको दायरा देती है की आप इस में भी रेंगो चलो और दौड़ो वरना हमेशा के लिए ऑंखें मूँद लो!इस की तासीर सामान्य ज़िन्दगी से जुदा है!इस में माया नहीं है!ये कठोर व्यवहारवाद पर टिकी है!अब अपना क्या बताउं मैने दो ज़िन्दगी जीना आज से काफी पहले आरंभ कर दिया!समाचार की ज़िन्दगी जाना बूझा फिर उसमे चलना फिरना शुरू कर दिया,मज़ा आने लगा लेकिन जहा मज़ा हैं वहां आस-पास कहीं टीस भी बैठी रहती है, मौका मिलते झपटती है!खैर दो ज़िन्दगी में जीना जारी रहा, जब एक में दुखता था तो दुसरे में भागता था!कई बार को मन हुआ की कठोर व्यवहारवादी ज़िन्दगी को छोड़ दूं लेकिन ज़ज्बातों की जकड़न यहाँ भी हो गई सो फैसला किया की दोनों को साथ लेकर चलूँगा!चल भी रहा हूँ,हाँ ये फैसला ज़रूर किया की समाचार की ज़िन्दगी के जिस घर टीस होगी उस घर को छोड़ दूंगा!नए घर में सावधान रहूँगा!एक नया घर मिला है,दुआवों की ज़रुरत है!

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

दर्द--बदनाम होटल का सीसीटीवी


मुझे दर्द को टटोलना है
कहाँ बस्ता है ये?
बदनाम होटल के सीसीटीवी
कैमरे सा हनीमूनी कपलों
को डसता है ये!
ढूँढता हु इसे नब्ज़ में
ज़हन के पुर्ज़े खोल-खोल!
छुपा है मेरे ही अन्दर
चुभन भी होती है,
पर मिलता नहीं
ढूँढू कहाँ मैं डोल-डोल?
कह देता इसे मैं ओश सा
जो खुद ना पर
पत्तों पर दिखता है
पर फर्क बड़ा है इनमे
शीतल ओश सुहाता है
दर्द हमेशा चुभता है!

ना बालों में
ना चमड़ी पे
ना कानो में
आवाज़ ही आती है!
ना आँखों से
नज़र आता है
दिल ढूंढ-ढूंढ दर्द को
थका-मांदा जाता है!

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

कंकरीट से नहीं आती आज़ादी की गंध!


न जाने किस ख़ुशी के पीछे
मारे हम जाते हैं!
ख़ुशी की खातिर आये यहाँ,
ख़ुशी को तरस हम जाते है!

आज़ादी की गंध सूंघना
किसी बियाबान के
झरने से छन के
आती हवा के झोंको की
खुशबू सी होती है!
तुम्हे मालूम नहीं शायद
बांगर के खेतों के बीच
जो परती होती है
उसमे बरसात का पानी
छोटे छोटे गड्ढों में
कैसे जमा होता है,
उसमें मछलियाँ
गर्दन फुला-फुला
के सूंघती हैं
आज़ादी की गंध!
तुम्हारी चाकरी
तुम्हे ख़ुशी देती है?
१२वी  मंजिल की चाहरदीवारी
जेल की सलाखों सी
नहीं लगती,जहाँ
किसी भी कंकरीट से
नहीं आती
आज़ादी की गंध!

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

परछाइयाँ बेवफा हैं!


परछाइयाँ धुप में
तेज़ हवा के झोंको में
लू के थपेड़ों के साथ
धुल बनके उड़ती हैं
कांपने लगती हैं तपिस में
प्यारे लम्हों की भी आदत है
परछाइयों सी
बेवफा हैं ये
ना तपिस में साथ
ना बगियाँ की छांव में
सुकून में साथ
ये ना गम की हमनवा है
ना ख़ुशी बांटे वो दिलरुबा
चलते-चलते मिले जो तुमसे
तो हाथ मिलाना
कोशिश करना
हो सके तो गले लगाना
ये कह ज़रूर देना
तेरा नाम परछाई किसने रखा
तू तो बेवफा है!

रविवार, 6 दिसंबर 2009

कूड़ावाली बच्ची


रोज़ की तरह आज का दिन निकला,वही आफत उठने पर!देर रात का सोना जल्दी जागना बड़ा परेशान कर देता है!ना स्टूडियो में सुकून मिलता है ना घर पे ना बाहर फिर भी खुद को शांत रख बेचैनी की लगाम अपने हाथ में रखता हूँ लेकिन आज इस इतवार कुछ अलग हो गया जो परेशान कर रहा है!
                           सुबह कुछ कपड़े प्रेस कराने थे सो नीचे को आया!प्रेस वाली के पास खड़ा था,वहां बहुत सारे आवारा कुत्ते घूम रहे थे!कुछ छोटे थे,कुछ मोटे थे,कुछ कीड़े पड़े भी थे!वहीँ पास ब्रेड पड़ा था उसे नोच नोच कर खा रहे थे!गली इतनी व्यस्त नहीं थी जितनी अमूमन होती है फिर भी खड़-खड़ करते पुराने स्कूटर सवार कुछ लोग, कुछ बाइक वाले तो कभी कभी कभार रिक्शे पर लक्ष्मी की नगर की सुन्दर लड़कियाँ सड़क से गुज़र रहीं थी!इसी बीच एक स्कूटर वाले का स्कूटर ख़राब हो गया,वो वहीँ बीच सड़क पर किक पे किक पेले जा रहा था,खींझ रहा था!अचानक वो सारे आवारा कुत्ते एक साथ भौंकने लगे थे,मुझे इसमे कुछ खास नहीं लगा!तभी प्रेस वाली मोटी अम्मा अपनी बेटी को बोली!
"देखियो रे उसको खा लिया क्या मुओं ने"
"उसने बोला हा अम्मी रो रही है"
मैंने  भी देखा एक कूड़ा बिनने वाली बच्ची सड़क पे गिरी पड़ी रो रही थी,भी मुझे लगा नाटक कर रही है,लगे भी क्यों ना ये दिल्ली की तमाम रेडलाइट पर भीख मांगने वालों से मैं बड़ा परेशान हूँ,साले सब के सब भीख मंगाते है और जाकर नबी करीम से गांजा-चरस जरूर लेते हैं,खाना खाएं ना खाएं!इस कारण इन सारे भीखमंगो से चिढ हो गई है मुझे!ऐसे में मुझे लगा गिर के नाटक कर रही है काटा-वाटा नहीं कुत्ते ने,ये तो वैसे ही गली में फिरने वाले आवारा कुत्ते हैं डरपोक होते हैं क्या काटेंगे?
इतनी ही देर में वो रोती हुई उठी, इक पुराना घाघरा पहना था उसे उठाया!उसके पैर में खरोंच के साथ कुत्ते का एक दांत घुसने का निशान था!वो रो रही थी,हाँ रोते हुए किसी का परवाह नहीं कर रही थी!उसी गली में एक चाय वाला बैठता है वो आया!
"कहाँ काटा है दिखा मेरे को"
उसने कोई जवाब नहीं दिया!
"चल डॉक्टर के पास ले चलता हूँ"फिर भी कोई जवाब नहीं!
मैं वहीँ प्रेस वाली के पास खड़ा देख रहा था स्वार्थशून्य उसके चेहरे को!कूड़ा बीनने वाली वो बच्ची रो रही थी लेकिन दर्द के अलावा उसके सारे भाव सो रहे थे,चेहरे पे कुछ दिखाई नहीं दे रह था,डॉक्टर से इलाज करवाने का लालच भी नहीं था!जो दिख रहा था वो बिखरे हुए बाल,गन्दगी से अटा उसका शरीर और हाँ उसकी पूरी काया पर ढेर सारी मासूमियत!गली के चलने का सिलसिला भी जारी था!आते-जाते समझा रहे थे!
"तुम डंडी लेके चला करो वरना ये कुत्ते काट खायेंगे"
अब तक चाय वाला गया नहीं था उसको बोल रहा था चल डॉक्टर के पास ले चलता हूँ! इतनी देर तक मेरे अन्दर का एक इन्सान मुझे छोड़ चूका था,जो अकसर बेवजह के फड्डों से मुझे दूर रहने की नसीहत देता है!दूसरा इन्सान सक्रीय था जो कूड़ेवाली के पास तक गया,उस बच्ची का बांह भी पकड़ा और बोला!
"चली जा इसके (चाय वाले)साथ"
तब तक उस से भी छोटा एक भाई वंहा आ गया कुत्तों की भूंक की दहशत से भागा था और बच निकला था!मुझे लगा कूड़े वाली बच्ची शायद रोते रोते उसी को ढूंढ रही थी!अब भाई आया तो वो आवाज़ लगाने लगा एटा,एटा!मैं पूरा तो नहीं पर समझ गया था ये बंगला में बोल रहे हैं,बुला रहा था उधर गली की दूसरी तरफ खड़े एक और भाई को (कुल मिलाकर तीन) पर वो आ नहीं रहा था,जान बचने की जदोज़हद में उसका बोरा छूट गया था,और ऊपर से सांड जैसा मोटा कुत्ता अपने अमले के साथ बोरे के पास ही सुस्ता रहा था!यहाँ भी मेरे अन्दर के दूसरे वाले इन्सान ने थोड़ी हिम्मत दिखाई उसका बोरा पकड़ा और उसको अपने बहन और भाई के पास पहुंचा दिया फिर तीनों को लेकर चाय वाला चला गया!
इधर मेरे अन्दर का पहला इन्सान फिर जागा!
"चल भाई अब तो ये गए तू अपना काम देख!"
लेकिन थोड़ी देर बाद जब सूटेड-बूटेड हो ऑफिस को निकला उसी गली से तो मैं चाय वाले से पूछ बैठा!
"भाई उसको ले गए थे डॉक्टर के पास"
"ना भाईसाब उसको बीस तीस रुपये दे दिए थे मैंने"!