रविवार, 27 जून 2010
तुम से दुरी का दर्द बह आया था उस दिन गंगा किनारे
पहाड़ नीला हुआ था
हिमालय की वादियाँ थी
गंगा की गूंजती लहरें
किनारे के चबूतरे पर
एक शादी हो रही थी,
काश तुम साथ होती उस दिन
यहाँ दिल्ली की लू से बाहर
पहुंचा था सुबह-सुबह,
गंगा किनारे बद्रीनाथ के करीब
लहराती गंगा के पास
रिसोर्ट के चबूतरे पर
बैठा-बैठा पहाड़ो से लटकते
पेड़ों में तुम्हे ही ढूंढ रहा था
काश उस दिन तुम साथ होती
गंगा के सामने जब दूल्हा
दुल्हन की मांग भर रहा था
दुल्हन ने ऑंखें मुंदी थी
ऐसा लगा जैसे उसने पूरी
कायनात सोंप दी हमसफ़र को
मेरी टक-टकी टूटी
ऑंखें मूँद ली मैने भी
सिहरन हुई थी सर से पैर तक
यूं लगा दूल्हा मैं दुल्हन तुम हो
इसी बीच पहाड़ों को बादलों ने घेरा था
झम-झामा-झम बदरा बरसे
तुम से दुरी का दर्द
बादलों के साथ बह आया था उस दिन
गंगा किनारे!!!!!!!!!!
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बहुत सुन्दर विरह की पीडा यादों की बारिश मे बहुत अच्छी लगी रचना बधाई
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