सोमवार, 15 अगस्त 2011

यूँ हीं एक दिन ,

इन  गलियों से वास्ता जो फिर पड़ा
थोड़ी देर न गम, न ख़ुशी
ठीक वैसे ही जैसे जीने की जुगत में
एक मजदूर भाव- भंगिमा , सोच
के बगैर  बस मगन पत्थर तोड़ने में !

ज़िंदगी फांसने लगी है ठगनी सी ,
अपने अंतहीन सिलसिले में !
नज़ारों पर नज़र तो तैरती है
पर नज़र कुछ  नहीं अता - 

फिर अचानक उसकी नज़रों
पर टिकना नज़र का
जैसे नीचे अंगार का डलना
और तसले का भाप से भरना
कुछ बूंदों का छिटक आना ढक्कन पर -

हूक का  आलम कुछ यूं  था अन्दर मेरे
दिल और गर्दन के बीच भाप , 
कुछ बूंदों का पलकों तक आना
क्योंकि माँ  की आँखों  ने तलाशी थी
नीचे से ऊपर तक  मेरी खैरियत  !

 

 

मंगलवार, 28 जून 2011

फ्लैशबैक

खुला आकाश देखना 
बरसात में 
बड़े दिनों बाद  हुआ था
आज नॉएडा टोल पर
काले सफ़ेद फ़ाहे से उड़ते बादल
यादों के स्लेट को खुरच-खुरच
कुछ-कुछ ताज़ा करते,
सामने सरपट सी दौड़ती 
ब्लर सड़क और आँखों के 
सामने एकदम वो दिन 
जब हम दोनों सोचा करते थे 
दफ्तर में लुका-छिपी कर,
किसी दिन चलेंगे साथ-साथ 
ऐसे ही बादलों में हाईवे पर 
लम्बी ड्राइव पर !

सोमवार, 6 जून 2011

दौर

 कस्बे की उचाट दोपहरी
सूखी सी,
गीला करने की तरकीब 
और प्रेमचंद का सेवासदन
उसमें बनारस के कोठे की कहानी, 
नयी-नयी जवानी
कभी मन भर आना, 
कभी फंतासी और रवानी,
कहने को तो तो दोपहरी उचाट भी होती 
पर उसमे भी मज़े को ढूँढना 
और पाना....
वो दौर था ...
आज ज़िन्दगी न सिर्फ सुखी सी
बेझिझक उचाट सी 
ना कोई नोवेल ना तरकीब 
खुद ही किताब बन जाना 
जो किसी कोठे की गर्द भरी अलमरी में 
इंतजार करता खुलने का
सुकून  से जी रहा
खुलेगा तो लोग जानेंगे...


गुरुवार, 12 मई 2011

कुछ ख़त ख्वाहिशों को

आज फिर ढूँढते-ढूँढते
वापस फिर उसी आशियाने 
पर आ ठहरी है तलाश
जहाँ रोज़ कभी-कभी
एक-आधी ख़त लिखता था
ख्वाहिशों को,
इन गुजारिशों के साथ 
की ख्वाहिश तुमसे मिलने
की ख्वाहिश रखता हूँ
मिलन में मज़ा नहीं
लौट आया वापस वहीँ 
जहाँ से लिख सकूँ ख़त
और इंतजार करूँ 
ख्वाहिशों का..

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

एक सवाल

गणित सी उलझी ज़िन्दगी
किसी पाठ से कम कहाँ
होशियार बचों को मौके है
पढ़ने का पर उनका क्या
जो पढ़ते नहीं समझते हैं?

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

ख़ुशी बस ख़याल है!

ख़ुशी क्या ?????

एकांत कमरों की
कानो में गूंजने वाली
सीं सीं की आवाज
या कभी किसी पब
के घोड़ीनुमा कुर्शी पर
टांग लटकाए पीते-पीते
नसों में घुलती आवाज़
धम धम डीजे की!

एक ही चोले के अन्दर
ना जाने कितने इन्सान पाले हैं मैंने
खुशियों की नोचा-नोची
क्नाट प्लेस से सिवान के
गांव तक झूलती
जेठ की धूप में दूर क्षितिज
पर चिलचिलाती चमक
जैसी दूर ही भागे!

बस  ख़याल है!

रविवार, 21 नवंबर 2010

जलो तो आग सा,

भीतर भीतर जलना
गीले उपले सा
खाली धुआं छोड़ता है
सब कुछ धुआं-धुआं
ना कुछ नज़र आये
ना कुछ नतीज़ा
खीझ की खांस और आंखे पानी पानी
अन्दर बस अधजला गोबर
आग को जलने दो ना
आग में सब पाक़ है!