थोड़ी देर न गम, न ख़ुशी
ठीक वैसे ही जैसे जीने की जुगत में
एक मजदूर भाव- भंगिमा , सोच
के बगैर बस मगन पत्थर तोड़ने में !
ज़िंदगी फांसने लगी है ठगनी सी ,
अपने अंतहीन सिलसिले में !
नज़ारों पर नज़र तो तैरती है
पर नज़र कुछ नहीं अता -
फिर अचानक उसकी नज़रों
पर टिकना नज़र का
जैसे नीचे अंगार का डलना
और तसले का भाप से भरना
कुछ बूंदों का छिटक आना ढक्कन पर -
हूक का आलम कुछ यूं था अन्दर मेरे
दिल और गर्दन के बीच भाप ,
कुछ बूंदों का पलकों तक आना
क्योंकि माँ की आँखों ने तलाशी थी
नीचे से ऊपर तक मेरी खैरियत !