कस्बे की उचाट दोपहरी
सूखी सी,
गीला करने की तरकीब
और प्रेमचंद का सेवासदन
उसमें बनारस के कोठे की कहानी,
नयी-नयी जवानी
कभी मन भर आना,
कभी फंतासी और रवानी,
कहने को तो तो दोपहरी उचाट भी होती
पर उसमे भी मज़े को ढूँढना
और पाना....
वो दौर था ...
आज ज़िन्दगी न सिर्फ सुखी सी
बेझिझक उचाट सी
ना कोई नोवेल ना तरकीब
खुद ही किताब बन जाना
जो किसी कोठे की गर्द भरी अलमरी में
इंतजार करता खुलने का
सुकून से जी रहा
खुलेगा तो लोग जानेंगे...
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