भीतर भीतर जलना
गीले उपले सा
खाली धुआं छोड़ता है
सब कुछ धुआं-धुआं
ना कुछ नज़र आये
ना कुछ नतीज़ा
खीझ की खांस और आंखे पानी पानी
अन्दर बस अधजला गोबर
आग को जलने दो ना
आग में सब पाक़ है!
किसी पुराने रस्ते
घर गालियों से गुजरते
छुआ छुई होती है कुछ यादों से अचानक जैसे पुराने बरतन से धूल की परतें हटती हैं स्टील से चमकते है बीते दिन पुराने ज़ख़्म भी वक़्त के धूल से भर दुखते नहीं,अच्छे लगते हैं ऐसा क्यूँ, ज़ख़्म तो ज़ख़्म हैं पर शायद फासला अहमियत बताता है वरना ज़ख़्म मरहम क्यूँ लगते ?