सोमवार, 15 अगस्त 2011

यूँ हीं एक दिन ,

इन  गलियों से वास्ता जो फिर पड़ा
थोड़ी देर न गम, न ख़ुशी
ठीक वैसे ही जैसे जीने की जुगत में
एक मजदूर भाव- भंगिमा , सोच
के बगैर  बस मगन पत्थर तोड़ने में !

ज़िंदगी फांसने लगी है ठगनी सी ,
अपने अंतहीन सिलसिले में !
नज़ारों पर नज़र तो तैरती है
पर नज़र कुछ  नहीं अता - 

फिर अचानक उसकी नज़रों
पर टिकना नज़र का
जैसे नीचे अंगार का डलना
और तसले का भाप से भरना
कुछ बूंदों का छिटक आना ढक्कन पर -

हूक का  आलम कुछ यूं  था अन्दर मेरे
दिल और गर्दन के बीच भाप , 
कुछ बूंदों का पलकों तक आना
क्योंकि माँ  की आँखों  ने तलाशी थी
नीचे से ऊपर तक  मेरी खैरियत  !