रविवार, 21 नवंबर 2010

जलो तो आग सा,

भीतर भीतर जलना
गीले उपले सा
खाली धुआं छोड़ता है
सब कुछ धुआं-धुआं
ना कुछ नज़र आये
ना कुछ नतीज़ा
खीझ की खांस और आंखे पानी पानी
अन्दर बस अधजला गोबर
आग को जलने दो ना
आग में सब पाक़ है!

सोमवार, 8 नवंबर 2010

फासले मरहम से

किसी पुराने रस्ते
घर गालियों से गुजरते
छुआ छुई होती है
कुछ यादों से 
अचानक जैसे पुराने बरतन 
से धूल की परतें हटती हैं
स्टील से चमकते है बीते दिन
पुराने ज़ख़्म भी
वक़्त के धूल से भर 
दुखते नहीं,अच्छे लगते हैं
ऐसा क्यूँ, ज़ख़्म तो ज़ख़्म हैं 
पर शायद फासला 
अहमियत बताता है 
वरना ज़ख़्म मरहम क्यूँ लगते ?