बुधवार, 15 दिसंबर 2010

एक सवाल

गणित सी उलझी ज़िन्दगी
किसी पाठ से कम कहाँ
होशियार बचों को मौके है
पढ़ने का पर उनका क्या
जो पढ़ते नहीं समझते हैं?

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

ख़ुशी बस ख़याल है!

ख़ुशी क्या ?????

एकांत कमरों की
कानो में गूंजने वाली
सीं सीं की आवाज
या कभी किसी पब
के घोड़ीनुमा कुर्शी पर
टांग लटकाए पीते-पीते
नसों में घुलती आवाज़
धम धम डीजे की!

एक ही चोले के अन्दर
ना जाने कितने इन्सान पाले हैं मैंने
खुशियों की नोचा-नोची
क्नाट प्लेस से सिवान के
गांव तक झूलती
जेठ की धूप में दूर क्षितिज
पर चिलचिलाती चमक
जैसी दूर ही भागे!

बस  ख़याल है!

रविवार, 21 नवंबर 2010

जलो तो आग सा,

भीतर भीतर जलना
गीले उपले सा
खाली धुआं छोड़ता है
सब कुछ धुआं-धुआं
ना कुछ नज़र आये
ना कुछ नतीज़ा
खीझ की खांस और आंखे पानी पानी
अन्दर बस अधजला गोबर
आग को जलने दो ना
आग में सब पाक़ है!

सोमवार, 8 नवंबर 2010

फासले मरहम से

किसी पुराने रस्ते
घर गालियों से गुजरते
छुआ छुई होती है
कुछ यादों से 
अचानक जैसे पुराने बरतन 
से धूल की परतें हटती हैं
स्टील से चमकते है बीते दिन
पुराने ज़ख़्म भी
वक़्त के धूल से भर 
दुखते नहीं,अच्छे लगते हैं
ऐसा क्यूँ, ज़ख़्म तो ज़ख़्म हैं 
पर शायद फासला 
अहमियत बताता है 
वरना ज़ख़्म मरहम क्यूँ लगते ?

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

तल्ख़-तल्ख सा एक

क्या तुमने पूछा उससे
तू इतना तल्ख़ क्यों है?
वो चुप चाप यूँ घूमता-फिरता
मर्ज़ी भर के जीता है
अपने हिसाब से
चाहता है ज़िन्दगी ही चले उसके ढर्रे पे
तुम जिसको को कहते हो नाजायज़
वो सब जायज़ है उसके लिए
क्युकी उसने भी तो जायज़ को जायज़ कहा था
तब दबा-दबा के उसकी बातों को
जायज़ को ही नाजायज़ बना दिया
बेचारा भूल गया
जायज़ और नाजायज़ में फर्क!!!

रविवार, 25 जुलाई 2010

आवारा जज़्बात

तकलीफों को उड़ायेंगे आवारगी में
फिक्र से दूर होने को
दूर हुए जज्बातों से
आवारा बनाया दिक्कतों ने
गर्दन छुपाये मस्ती के रेत में
शुतुरमुर्ग सा 
लगने कुछ यूँ लगा है
दबने लगा हूँ खुद किसी
रेत में!

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

तुम्हारे जाने के बाद!

अब कौन आयेगा इस वीराने में
हवाएं सिसकती है,
टीस बिस्तर,तकिये,पलंग से
लेकर खिड़की तक झांकती है
धुंए सी घुली तन्हाई
जाने दर्द है
या तुम्हारी यादें
घुले-घुले कुछ बीते दिन
आज तक इस इस कमरे में
तुम्हारी महक बिखेरते है
तुम्हारे जाने के बाद!

बुधवार, 30 जून 2010

चवन्नी-अठन्नी सा खर्च होता वक़्त

रोज़ कुछ लिखने-पढ़ने का मन करता है
पर अजीब आपाधापी है
चाह कर भी
कुछ ना कर पाने गम
किस क़दर परेशान करता है
बस वैसे ही परेशान होता हूँ
क्या करूँ?
नहीं होता वक़्त सोलह आने
चवन्नी-अठन्नी सा खर्च होता है
कुछ दफ्तर में,कुछ फोन पर,
कुछ कुछ लोगों को खुश करने को
इस दोहरी ज़िन्दगी में सर फटा-फटा
मुझे ना जाने कितनी गालियां
देता है,
सच है ये मेरी व्यथा है
देर रात घर पहुँच
खुद को पाने की कोशिश में
सर पे ठंडा तेल लगाऊं या
गले में वोडका डालूं
बेसुध होने तक
सर में टाँय-टाँय
शोर का तबला बजता ही रहता है
और बेसुधी के बाद
मन ही मन खुश हो लेता हूँ
कल लिखूंगा के साथ....

रविवार, 27 जून 2010

तुम से दुरी का दर्द बह आया था उस दिन गंगा किनारे

                                        
पहाड़ नीला हुआ था
हिमालय की वादियाँ थी
गंगा की गूंजती लहरें
किनारे के चबूतरे पर
एक शादी हो रही थी,
 काश तुम साथ होती उस दिन
                           यहाँ दिल्ली की लू से बाहर
                           पहुंचा था सुबह-सुबह,
                           गंगा किनारे बद्रीनाथ के करीब     
                           लहराती गंगा के पास
                           रिसोर्ट के चबूतरे पर
                           बैठा-बैठा पहाड़ो से लटकते
                          पेड़ों में तुम्हे ही ढूंढ रहा था
                          काश उस दिन तुम साथ होती
गंगा के सामने जब दूल्हा
दुल्हन की मांग भर रहा था
दुल्हन ने ऑंखें मुंदी थी
ऐसा लगा जैसे उसने पूरी
कायनात सोंप दी हमसफ़र को
मेरी टक-टकी टूटी
ऑंखें मूँद ली मैने भी
सिहरन हुई थी सर से पैर तक
यूं लगा दूल्हा मैं दुल्हन तुम हो
                         इसी बीच पहाड़ों को बादलों ने घेरा था
                          झम-झामा-झम बदरा बरसे
                           तुम से दुरी का दर्द
                          बादलों के साथ बह आया था उस दिन
                           गंगा किनारे!!!!!!!!!!


                          

शनिवार, 19 जून 2010

रावणायण

कल जंगल गया था रावण को देखने,एक सीता मेरे साथ भी थी!जिस सीता को मैने जंगल में देखा उसने रावण को पसंद किया और मेरे साथ जो सीता थी,उसने भी जंगल की वाली सीता के फैसले का समर्थन किया,,और तो और मुझे भी अपने काल की इस सीता के फैसले से अचरज नहीं हुआ!
                                                रावण,रावण ही है उसकी पहचान उसके नाम से ही हो जाता है, नाम का पर्याय है क्रूरता!ये रावन तो हद से ज्यादा क्रूर था!किस निर्दयिता से उसने धोखा देने वाले अपने साथियों के अंग काटे,अपने दुश्मनो को आग में मुर्गे की तरह पका दिया!लेकिन इस  रावण की खासियत ये थी की इसके अन्दर दिल था,ये तर्कवादी था,जो सही था उसका समर्थक था,हाँ जो गलत था उसका उग्र और हिंसक विरोधी था!
                                              समय सख्त पथरों के नक्से बादल देता है,हाड़-मांस का बना इन्सान क्या चीज़ है!वो शायद सतयुग था,आज कलयुग है!युग ही बदल गया है,समयांतर आप समझ सकते है!इतने अन्तराल में रावण सदाचारों के मामले में राम के करीब हो गया है और राम लगभग रावन बन गया है वरना ये राम इतना छलिया कैसे होता!---रघुकुल रीति सदा चली आई,प्राण जाई पर वचन ना जाई---ये तो बिलकुल ही उलट गया है!ये राम तो सीता को ही गिरा झूठ बोलता है,रावण तक पहुंचने को!इस राम का मकसद सदाचारी समाज की स्थापना से ज्यादा  निजी  महत्वाकांछा को किसी भी भी कीमत पे पाना है!
                                               बचपन में रामायण खूब चाव से देखा!कितने प्यारे थे ना राम जी!उनके आभामंडल में हम तीर-धनुष  बना राम-राम खेलने लगे!हर बच्चे में राम बनाने की होड़!अब बच्चा होता तो बम के गोलों के साथ खेल में रावण ही बनता!

रविवार, 13 जून 2010

शराब का समंदर,एक टाईटैनिक और हम डूबने वाले

( कल रात टाईटैनिक देखते-देखते कुछ ख्याल आया था )


                          क्या होता गर शराब का समंदर होता    
                          क्या तब भी तुम डूबने से डरते ?
                          कम से कम मैं तो नहीं
                          देखते तुम भी समंदर का रंग
                          कितना सुर्ख होता
                          पी- पा के टल्ली समंदर
                          तुम्हे डूबने कहाँ देता
                         मौजो की चादर होती प्यारी सी
                         तुम लेट ही जाते उसपर
                         डूबने वाले तो हम है ना
                         टाईटैनिक की कहानी अलग सी बनाते
                         तब हम मजबूरी में नहीं
                         जहाज से कूद के शराबी मौजो से
                         खेलते,
                         आहा,, कितना मज़ा आता ना
                         मुझे तो तैरना भी नहीं आता
                         डूबते-उतराते नाक, मुह, कान
                         में शराब ही शराब
                         तब साली मौत भी डरने लगती
                        कहती ऐसा डूबने वाला पहले नहीं देखा !!!
           

शुक्रवार, 28 मई 2010

द्रोपदियों का गांव

भूख का दर्द कैसा होता है,आप में से कुछ समझेंगे कुछ नहीं!समझेगा वही जो भूख को चबाया होगा!भूख चबाना दो दिन,चार दिन तक तो संभव है,उसके आगे तो जीने की जुगत लगानी ही होगी क्यूंकि भूख जीत जाती है, तमाम सिधान्तों पर, विचारों पर और बुनियादी चीज जो नजर आती है, वो सिर्फ और सिर्फ भूख होतीहै!लद्दाख से तिब्बत तक के इलाके में ज़िन्दगी बहुत मुश्किल है!यहाँ सर्दी इन्सान तो क्या ज़मीन को सिकोड़ देती है,इस सिकुडन में रोटी की दिक्कत है,ऊपर से समतल ज़मीन का ना होना!ना घर के लिए जगह होती है ना दाना-पानी उगाने की जगह!खैर वहां के लोगो ने ऐसे में ही अनुकूलन बना लिया है!इस अनुकूलन के भी कुछ निहितार्थ हैं!दरअसल लोग यहाँ रोटी, ज़मीन और परिवार के लिए घर में एक द्रोपदी रखते हैं!कोई भी द्रोपदी हो वो मजबूरी की ही प्रतीक है!तब मां के वचन का पालन करना था पर तब वचन की विवशता थी आज ये अलग है!आज द्रोपदी किसी वचन को विवश नहीं है!ये द्रोपदी परम्परा का निर्वहन कर रही है! लद्दाख-तिब्बत पट्टी में समतल नहीं, पहाड़ है! यहाँ खेती-बाड़ी की बात तो दूर झोपड़ी डालने तक की जगह नहीं होती, ऐसे में यहाँ लोगों ने कालांतर से ही जीवन की एक नई शैली विकसित कर ली!शैली है एक परिवार के सभी भाइयों की एक पत्नी!इसका कारण ये है की अगर पत्नी एक होगी तो बंटवारे की समस्या नहीं आयेगी!चूँकि सबकी पत्नी एक तो सबके बच्चे एक, ऐसे में बंटवारे का प्रश्न नहीं आयेगा!बंटवारा तो तब होगा ना जब सबका अलग घर-परिवार होगा!अब यहाँ तो समस्त भाइयों की पत्नी एक तो बाप में फर्क कौन करे और एसा करना मुमकिन भी नहीं!ऐसे में बंटवारे का गणित खुद ब खुद दम तोड़ देता है और ज़िन्दगी पहले से ही खींचे ढर्रे पर चलती रहती है,चलती रहती है!  

बुधवार, 26 मई 2010

यूँ ही खाली-खाली

खाली-खाली वक़्त में बैठा
खाली-खाली वक़्त को कोसना
खाली मैं भी वक़्त भी खाली
संभाले किसे कौन
खाली होना भी तो ख्याली है
वरना मारता एक तमाचा
वक़्त को या वक़्त ही मारता 
मुझे तमाचा
कुछ तो होता
बस हो जाता
क्यूंकि खाली होना किसे सुहाए
पता नहीं वक़्त को खाली होना गवारा कैसे
मैं तो परेशान हो जाता हूँ
और कुछ खाली लोग भी है
उन्हें वक़्त नहीं,मैं ही खाली नज़र आता हूँ!

शनिवार, 22 मई 2010

एक नया घर मिला है,दुआवों की ज़रुरत है!

समाचार की दुनिया एक ज़िन्दगी है!इस ज़िन्दगी को जीना पड़ता है!यहाँ अगर जीना नहीं आया तो मौत होती है तिल-तिल कर एड्स की तरह शायद!समाचार से अलग हुए तो समाचार आपसे भागने लगता है!..वो कहावत अपने सुनी है ना अगर आप विद्या से दूर भागोगे तो विद्या आपसे दूर भाग जाएगी...!दरअसल ये कहावत हमें बचपन में सुनने को मिलती थी जब पढ़ने के लिए हमारे परिजन हमें सुनाते थे!इस को मैने समाचार के सन्दर्भ में भी महसूस किया है!
                 तमाम कलेसों  के बीच कई बार को एसा लगता है की जो ये सामान्य जिंदगी है वो समाचार की भिन्न ज़िन्दगी पर भारी पड़ने लगती है!वजह साफ है मैने सामान्य ज़िन्दगी में ही आंखे खोली, पहले रेंगा बाद में खड़ा हुआ और दौड़ने लगा!रिश्तों में उलझा, रिश्ते मुझ पे चढ़ बैठे!या यूँ कहें में माया का हिस्सा हो गया जो अब तक मुझ पर पर भारी है और आखिरी साँस तक यही रहेगा,माया से उबरना  इश्वर के लिए आसान नहीं रहा में तो एक इन्सान हूँ!खैर मुद्दे पर लौटें----हाँ,मैं ये कह रहा था की एक और सामानांतर ज़िन्दगी ने भी मुझे अपने अन्दर समाहित किया!यहाँ बस खबर, खबर, खबर इसी में जियो, इसी में खाओ, इसी में पियो, इसी में जियो, इसी में मरो तब तो ये अपने अन्दर आपको दायरा देती है की आप इस में भी रेंगो चलो और दौड़ो वरना हमेशा के लिए ऑंखें मूँद लो!इस की तासीर सामान्य ज़िन्दगी से जुदा है!इस में माया नहीं है!ये कठोर व्यवहारवाद पर टिकी है!अब अपना क्या बताउं मैने दो ज़िन्दगी जीना आज से काफी पहले आरंभ कर दिया!समाचार की ज़िन्दगी जाना बूझा फिर उसमे चलना फिरना शुरू कर दिया,मज़ा आने लगा लेकिन जहा मज़ा हैं वहां आस-पास कहीं टीस भी बैठी रहती है, मौका मिलते झपटती है!खैर दो ज़िन्दगी में जीना जारी रहा, जब एक में दुखता था तो दुसरे में भागता था!कई बार को मन हुआ की कठोर व्यवहारवादी ज़िन्दगी को छोड़ दूं लेकिन ज़ज्बातों की जकड़न यहाँ भी हो गई सो फैसला किया की दोनों को साथ लेकर चलूँगा!चल भी रहा हूँ,हाँ ये फैसला ज़रूर किया की समाचार की ज़िन्दगी के जिस घर टीस होगी उस घर को छोड़ दूंगा!नए घर में सावधान रहूँगा!एक नया घर मिला है,दुआवों की ज़रुरत है!