एक मुद्दत बीता सा लगता था
वरना ये दो चार साल क्या होते है
लिहाज़ के मारे
दिन ब दिन हमने रोज़ निकाले
वो कुछ लम्हें जिनके राज़दार
बस हम तुम
पर इन सालों में तुम्हारा तो नहीं पता
मेरा बहकने का सिलसिला मुझे याद है
उन हसीन लम्हों का होकर!
आज रात मौका भी आया
तो हम अकेले ही लरज़ते रहे
तुम निकल गई आगे बस हम अटके रहे
ना जाने कितने सवाल थे मेरे
तुमसे रूबरू हो पूछने को
एक खींझ थी,चोट खाए
अरमान थे सब ने मिल कर
सवालों के पुलिंदे बनाये थे
पर जब सामना तुमसे हुआ
मैंने,खुद ने खुद को धोखा दिया
तुमसे मिन्नत कर
और तो और अपने ही बनाये सवालों को ज़लील कर
उन्हें तुम्हारे सामने ही नहीं रखा
पागल सा तुम में वही ढूंढता रहा
जो तुमसे पाया करता था
तुम्हारे जाने के बाद भी
ज़बरदस्ती खुद को यकीन दिलाता रहा
तुम वही हो तुम वही हो तुम वही हो
रात बीती सहर का अजान सुरीला नहीं था
नींद जो भागी थी उन्ही लम्हों की खोज में
लोटी भी हैरान परेशान
मुझे देखा उसने सुबह ७ बजे तक
खुद को दिलासा देते हुए!
नींद ने भी फटकारा,कहा
मैं आई हूँ आगोश में आओ
उसको झटक दिया दिहाड़ी की फिक्र मैं
अनायास ही ज़हन कौंधा
तुम निकल गई आगे हम ही क्यों अटके रहे???
सोमवार, 30 नवंबर 2009
सोमवार, 16 नवंबर 2009
आज एक पाती तुम्हारे नाम-(मसूरी के गनहिल से लौटकर)
आज एक पाती तुम्हारे नाम-
याद है ना देवदार के इस पार हम
और उस पार दूर देश में बरफ़ का घर
कैसे चमक रहा था
छंटते-बढ़ते बादल
नक्कासी काढ रहे थे वहां दूर
उस बर्फीले तम्बू पर!
हम बैठे थे सबसे ऊँची छत पर
पत्थरों की कुर्शी बनाई
एक पर तुम बैठी एक पर मैं
मैं ज़ज्बातों में बहता
बौराया सा,घूरता कभी सफ़ेद
कभी हरे आसमां में घुसे टीलों को
और तुम झून्झलाती मुझ बौर पे!
कितनी सर्दी थी ना
हम दिल्लीवाले कैसे किड़क रहे थे कभी-कभी
बादल भी चेपू से
कभी जाते भी तो थोड़ी देर में लौट आते
गुस्से को अन्दर ही अन्दर चबाते
एक भी डांट नहीं सुनाई हमने बादलों को
सुनाते भी कैसे तब,आजू-बाजु वाले सब
यूँ ही तो कह रहे थे ये बादलों का डेरा है!
खामोशी की भी गूंज होती है
तभी तो पता चला था
कान सीं-सीं कर बज रहे थे
हमारी जुड़वाँ तन्हाई में
पता नहीं धोखे से घंटो कैसे बीते
क्यूंकि हमने तो इतनी कोशिश करी थी
वक़्त को थामने की!
खैर दगाबाज वक़्त ना ठहरा
ना सही
यादें तो अपनी हैं
जिनको इतने करीने से सजायी है मैंने तुम्हारे लिए!
इसलिए आज एक पाती तुम्हारे नाम----------
याद है ना देवदार के इस पार हम
और उस पार दूर देश में बरफ़ का घर
कैसे चमक रहा था
छंटते-बढ़ते बादल
नक्कासी काढ रहे थे वहां दूर
उस बर्फीले तम्बू पर!
हम बैठे थे सबसे ऊँची छत पर
पत्थरों की कुर्शी बनाई
एक पर तुम बैठी एक पर मैं
मैं ज़ज्बातों में बहता
बौराया सा,घूरता कभी सफ़ेद
कभी हरे आसमां में घुसे टीलों को
और तुम झून्झलाती मुझ बौर पे!
कितनी सर्दी थी ना
हम दिल्लीवाले कैसे किड़क रहे थे कभी-कभी
बादल भी चेपू से
कभी जाते भी तो थोड़ी देर में लौट आते
गुस्से को अन्दर ही अन्दर चबाते
एक भी डांट नहीं सुनाई हमने बादलों को
सुनाते भी कैसे तब,आजू-बाजु वाले सब
यूँ ही तो कह रहे थे ये बादलों का डेरा है!
खामोशी की भी गूंज होती है
तभी तो पता चला था
कान सीं-सीं कर बज रहे थे
हमारी जुड़वाँ तन्हाई में
पता नहीं धोखे से घंटो कैसे बीते
क्यूंकि हमने तो इतनी कोशिश करी थी
वक़्त को थामने की!
खैर दगाबाज वक़्त ना ठहरा
ना सही
यादें तो अपनी हैं
जिनको इतने करीने से सजायी है मैंने तुम्हारे लिए!
इसलिए आज एक पाती तुम्हारे नाम----------
बुधवार, 4 नवंबर 2009
फागुन की धूप में छत पर.....
सर्दी से सीली हुई रजाई
छत पर सुखाने धूप में,
मैं भी जाया करता था छत पर,
अब सालों बाद वो रजाई तो नहीं
पर कुछ सीली हुई सी यादें जरूर हैं!
अलसाये हुए होते दिन भी थोड़े-थोड़े,
सूखती रजाई की तह पे लेट,
ऑंखें थोड़ी खुली,थोड़ी मूंदी हुई सी
कुछ हसरतें भी सुखाया करते थे!
वो मालिस करती धुप
गुदगुदी और शुरूर दोनों भरा करती थी,
और हम नई जवानी के किनारे
अल्हड़ हो,सुखाते-सखाते ना जाने
किसकी गेसुओं में खो जाया करते थे!
सर्दी का गाँव भी बड़ा निराला था!
पीले-पीले फूल होते थे सरसों के,
बथुआ,पालक,मटर के लते,लगाते
पीले पर हरे का तड़का,
दिखता था ये सब साफ-साफ,
खेतों के बीच बसे मेरे घर की छत से.....
दिन तो अब भी होतें हैं पर वो नहीं
जो होते थे फागुन की धूप में छत पर.....
छत पर सुखाने धूप में,
मैं भी जाया करता था छत पर,
अब सालों बाद वो रजाई तो नहीं
पर कुछ सीली हुई सी यादें जरूर हैं!
अलसाये हुए होते दिन भी थोड़े-थोड़े,
सूखती रजाई की तह पे लेट,
ऑंखें थोड़ी खुली,थोड़ी मूंदी हुई सी
कुछ हसरतें भी सुखाया करते थे!
वो मालिस करती धुप
गुदगुदी और शुरूर दोनों भरा करती थी,
और हम नई जवानी के किनारे
अल्हड़ हो,सुखाते-सखाते ना जाने
किसकी गेसुओं में खो जाया करते थे!
सर्दी का गाँव भी बड़ा निराला था!
पीले-पीले फूल होते थे सरसों के,
बथुआ,पालक,मटर के लते,लगाते
पीले पर हरे का तड़का,
दिखता था ये सब साफ-साफ,
खेतों के बीच बसे मेरे घर की छत से.....
दिन तो अब भी होतें हैं पर वो नहीं
जो होते थे फागुन की धूप में छत पर.....
मंगलवार, 3 नवंबर 2009
नश्ल-नश्ल के लोग
इस कुनबे में ना जाने कितनी नश्ल के लोग रहते हैं!
तुम मिलो तो हैं तुम्हारे भाई!
मैं मिलूं तो मेरे बन जायेंगे!
सरको बस थोड़ी दूर गर सामने से,
प्यारे,गालियों की इनायत बरसाएंगे!
अब क्या कहें इनके बारे में,कहते हुए थक जायेंगे!
रहना सावधान,वरना बाबू,
आगे नहीं,पीछे से मुक्का लहरायेंगे!
समझो ना,इस कुनबे में कितनी नश्ल के लोग रहते हैं!
एक बेचारे वो भी हैं,इसी में,
सामने की तारीफ पर ललचायेंगे!
ना समझ खेल-खिलाडी की इन बातों को,
मुफ्त में मारे जायेंगे,
अब हम ही क्यूँ समझाएं,
समझे नहीं तो खुद ही फंस जायेंगे!
कम से कम अपने लिए ही सही,होशियार तो होना पड़ेगा!
क्यूंकि इन्ही दड़बों में उंच-नीच तमाम प्रयोग होते है!
समल्हना प्यारे,तुम्हारे बीच ही नश्ल-नश्ल के लोग रहते हैं!!!!!!!!
तुम मिलो तो हैं तुम्हारे भाई!
मैं मिलूं तो मेरे बन जायेंगे!
सरको बस थोड़ी दूर गर सामने से,
प्यारे,गालियों की इनायत बरसाएंगे!
अब क्या कहें इनके बारे में,कहते हुए थक जायेंगे!
रहना सावधान,वरना बाबू,
आगे नहीं,पीछे से मुक्का लहरायेंगे!
समझो ना,इस कुनबे में कितनी नश्ल के लोग रहते हैं!
एक बेचारे वो भी हैं,इसी में,
सामने की तारीफ पर ललचायेंगे!
ना समझ खेल-खिलाडी की इन बातों को,
मुफ्त में मारे जायेंगे,
अब हम ही क्यूँ समझाएं,
समझे नहीं तो खुद ही फंस जायेंगे!
कम से कम अपने लिए ही सही,होशियार तो होना पड़ेगा!
क्यूंकि इन्ही दड़बों में उंच-नीच तमाम प्रयोग होते है!
समल्हना प्यारे,तुम्हारे बीच ही नश्ल-नश्ल के लोग रहते हैं!!!!!!!!
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