रविवार, 11 अक्तूबर 2009

आज के लिए

क्या और कहाँ से लिखूं अभी तय नही कर पा रहा हूँ,,,,पर उनकी चन्द लाइनें, जिनका मैं मुरीद हूँ..
                         
नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा


बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी
समकालीन विषयों पर गुफ्तगू और दिल की तमाम बातों के साथ मुलाकात होती रहेगी..........

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