मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

दर्द--बदनाम होटल का सीसीटीवी


मुझे दर्द को टटोलना है
कहाँ बस्ता है ये?
बदनाम होटल के सीसीटीवी
कैमरे सा हनीमूनी कपलों
को डसता है ये!
ढूँढता हु इसे नब्ज़ में
ज़हन के पुर्ज़े खोल-खोल!
छुपा है मेरे ही अन्दर
चुभन भी होती है,
पर मिलता नहीं
ढूँढू कहाँ मैं डोल-डोल?
कह देता इसे मैं ओश सा
जो खुद ना पर
पत्तों पर दिखता है
पर फर्क बड़ा है इनमे
शीतल ओश सुहाता है
दर्द हमेशा चुभता है!

ना बालों में
ना चमड़ी पे
ना कानो में
आवाज़ ही आती है!
ना आँखों से
नज़र आता है
दिल ढूंढ-ढूंढ दर्द को
थका-मांदा जाता है!

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

कंकरीट से नहीं आती आज़ादी की गंध!


न जाने किस ख़ुशी के पीछे
मारे हम जाते हैं!
ख़ुशी की खातिर आये यहाँ,
ख़ुशी को तरस हम जाते है!

आज़ादी की गंध सूंघना
किसी बियाबान के
झरने से छन के
आती हवा के झोंको की
खुशबू सी होती है!
तुम्हे मालूम नहीं शायद
बांगर के खेतों के बीच
जो परती होती है
उसमे बरसात का पानी
छोटे छोटे गड्ढों में
कैसे जमा होता है,
उसमें मछलियाँ
गर्दन फुला-फुला
के सूंघती हैं
आज़ादी की गंध!
तुम्हारी चाकरी
तुम्हे ख़ुशी देती है?
१२वी  मंजिल की चाहरदीवारी
जेल की सलाखों सी
नहीं लगती,जहाँ
किसी भी कंकरीट से
नहीं आती
आज़ादी की गंध!

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

परछाइयाँ बेवफा हैं!


परछाइयाँ धुप में
तेज़ हवा के झोंको में
लू के थपेड़ों के साथ
धुल बनके उड़ती हैं
कांपने लगती हैं तपिस में
प्यारे लम्हों की भी आदत है
परछाइयों सी
बेवफा हैं ये
ना तपिस में साथ
ना बगियाँ की छांव में
सुकून में साथ
ये ना गम की हमनवा है
ना ख़ुशी बांटे वो दिलरुबा
चलते-चलते मिले जो तुमसे
तो हाथ मिलाना
कोशिश करना
हो सके तो गले लगाना
ये कह ज़रूर देना
तेरा नाम परछाई किसने रखा
तू तो बेवफा है!

रविवार, 6 दिसंबर 2009

कूड़ावाली बच्ची


रोज़ की तरह आज का दिन निकला,वही आफत उठने पर!देर रात का सोना जल्दी जागना बड़ा परेशान कर देता है!ना स्टूडियो में सुकून मिलता है ना घर पे ना बाहर फिर भी खुद को शांत रख बेचैनी की लगाम अपने हाथ में रखता हूँ लेकिन आज इस इतवार कुछ अलग हो गया जो परेशान कर रहा है!
                           सुबह कुछ कपड़े प्रेस कराने थे सो नीचे को आया!प्रेस वाली के पास खड़ा था,वहां बहुत सारे आवारा कुत्ते घूम रहे थे!कुछ छोटे थे,कुछ मोटे थे,कुछ कीड़े पड़े भी थे!वहीँ पास ब्रेड पड़ा था उसे नोच नोच कर खा रहे थे!गली इतनी व्यस्त नहीं थी जितनी अमूमन होती है फिर भी खड़-खड़ करते पुराने स्कूटर सवार कुछ लोग, कुछ बाइक वाले तो कभी कभी कभार रिक्शे पर लक्ष्मी की नगर की सुन्दर लड़कियाँ सड़क से गुज़र रहीं थी!इसी बीच एक स्कूटर वाले का स्कूटर ख़राब हो गया,वो वहीँ बीच सड़क पर किक पे किक पेले जा रहा था,खींझ रहा था!अचानक वो सारे आवारा कुत्ते एक साथ भौंकने लगे थे,मुझे इसमे कुछ खास नहीं लगा!तभी प्रेस वाली मोटी अम्मा अपनी बेटी को बोली!
"देखियो रे उसको खा लिया क्या मुओं ने"
"उसने बोला हा अम्मी रो रही है"
मैंने  भी देखा एक कूड़ा बिनने वाली बच्ची सड़क पे गिरी पड़ी रो रही थी,भी मुझे लगा नाटक कर रही है,लगे भी क्यों ना ये दिल्ली की तमाम रेडलाइट पर भीख मांगने वालों से मैं बड़ा परेशान हूँ,साले सब के सब भीख मंगाते है और जाकर नबी करीम से गांजा-चरस जरूर लेते हैं,खाना खाएं ना खाएं!इस कारण इन सारे भीखमंगो से चिढ हो गई है मुझे!ऐसे में मुझे लगा गिर के नाटक कर रही है काटा-वाटा नहीं कुत्ते ने,ये तो वैसे ही गली में फिरने वाले आवारा कुत्ते हैं डरपोक होते हैं क्या काटेंगे?
इतनी ही देर में वो रोती हुई उठी, इक पुराना घाघरा पहना था उसे उठाया!उसके पैर में खरोंच के साथ कुत्ते का एक दांत घुसने का निशान था!वो रो रही थी,हाँ रोते हुए किसी का परवाह नहीं कर रही थी!उसी गली में एक चाय वाला बैठता है वो आया!
"कहाँ काटा है दिखा मेरे को"
उसने कोई जवाब नहीं दिया!
"चल डॉक्टर के पास ले चलता हूँ"फिर भी कोई जवाब नहीं!
मैं वहीँ प्रेस वाली के पास खड़ा देख रहा था स्वार्थशून्य उसके चेहरे को!कूड़ा बीनने वाली वो बच्ची रो रही थी लेकिन दर्द के अलावा उसके सारे भाव सो रहे थे,चेहरे पे कुछ दिखाई नहीं दे रह था,डॉक्टर से इलाज करवाने का लालच भी नहीं था!जो दिख रहा था वो बिखरे हुए बाल,गन्दगी से अटा उसका शरीर और हाँ उसकी पूरी काया पर ढेर सारी मासूमियत!गली के चलने का सिलसिला भी जारी था!आते-जाते समझा रहे थे!
"तुम डंडी लेके चला करो वरना ये कुत्ते काट खायेंगे"
अब तक चाय वाला गया नहीं था उसको बोल रहा था चल डॉक्टर के पास ले चलता हूँ! इतनी देर तक मेरे अन्दर का एक इन्सान मुझे छोड़ चूका था,जो अकसर बेवजह के फड्डों से मुझे दूर रहने की नसीहत देता है!दूसरा इन्सान सक्रीय था जो कूड़ेवाली के पास तक गया,उस बच्ची का बांह भी पकड़ा और बोला!
"चली जा इसके (चाय वाले)साथ"
तब तक उस से भी छोटा एक भाई वंहा आ गया कुत्तों की भूंक की दहशत से भागा था और बच निकला था!मुझे लगा कूड़े वाली बच्ची शायद रोते रोते उसी को ढूंढ रही थी!अब भाई आया तो वो आवाज़ लगाने लगा एटा,एटा!मैं पूरा तो नहीं पर समझ गया था ये बंगला में बोल रहे हैं,बुला रहा था उधर गली की दूसरी तरफ खड़े एक और भाई को (कुल मिलाकर तीन) पर वो आ नहीं रहा था,जान बचने की जदोज़हद में उसका बोरा छूट गया था,और ऊपर से सांड जैसा मोटा कुत्ता अपने अमले के साथ बोरे के पास ही सुस्ता रहा था!यहाँ भी मेरे अन्दर के दूसरे वाले इन्सान ने थोड़ी हिम्मत दिखाई उसका बोरा पकड़ा और उसको अपने बहन और भाई के पास पहुंचा दिया फिर तीनों को लेकर चाय वाला चला गया!
इधर मेरे अन्दर का पहला इन्सान फिर जागा!
"चल भाई अब तो ये गए तू अपना काम देख!"
लेकिन थोड़ी देर बाद जब सूटेड-बूटेड हो ऑफिस को निकला उसी गली से तो मैं चाय वाले से पूछ बैठा!
"भाई उसको ले गए थे डॉक्टर के पास"
"ना भाईसाब उसको बीस तीस रुपये दे दिए थे मैंने"!

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

एक कच्ची सड़क पर


चित्र:साभार-विजय प्रताप सिंह
आज चलो ना मेरे गांव में
एक कच्ची सड़क पर
जिसपे धूल उड़ा करती है
ठंड की पछुआ भी
इन्ही सडकों पर दिखा करती है
किनारे किनारे खेतों में फसलें,
खेत महकते हैं सड़क से गुजरते,
अरहर के दाल खाते हो ना 
मैंने अरहर के पौधे की जवानी देखी है
खड़े होते हैं सारे
कुदरती डीओडरेंट लगाये
आपस में ठिठोली करते हैं
मैंने इनकी मस्ती देखी हैं
एक बगिया है आम की
इसी सड़क किनारे
एक पाठशाला,एक पोखर 
दोनों साथ साथ हैं
छोटे छोटे बच्चे
बोरे पर बैठकर
पढ़ते हैं
पोखर में कागज़ की नाव चलाते हैं
खेल खेल में चिल्लाते है
बच्चों की किलकारी
हवा के झोंको पर बैठ
मेरे बरामदे तक
कभी तेज़ तो कभी मद्धिम हो आया करती है
मेरे कमरे के बाहर
घर से लगे खेत भी तो है
उसमे लगे मक्के के पत्तों
पर कभी बारिश की बूँदें गिरती है ना
तो हर ओर संगीत के साज़ बजते हैं
आ जाओ मेरे साथ
ले चलता हु तुम्हे
सड़क के पास वाली
घनी बगिया में
लटकी हुई एक टहनी पर
हम भी लटकेंगे!!!

सोमवार, 30 नवंबर 2009

नींद ने भी फटकारा


              एक मुद्दत बीता सा लगता था
              वरना ये दो चार साल क्या होते है
              लिहाज़ के मारे
              दिन ब दिन हमने रोज़ निकाले
              वो कुछ लम्हें जिनके राज़दार
              बस हम तुम
              पर इन सालों में तुम्हारा तो नहीं पता
              मेरा बहकने का सिलसिला मुझे याद है
              उन हसीन लम्हों का होकर!
              आज रात मौका भी आया
              तो हम अकेले ही लरज़ते रहे
              तुम निकल गई आगे बस हम अटके रहे
              ना जाने कितने सवाल थे मेरे
              तुमसे रूबरू हो पूछने को
              एक खींझ थी,चोट खाए
              अरमान थे सब ने मिल कर
              सवालों के पुलिंदे बनाये थे
              पर जब सामना तुमसे हुआ
              मैंने,खुद ने खुद को धोखा दिया
              तुमसे मिन्नत कर
              और तो और अपने ही बनाये सवालों को ज़लील कर
              उन्हें तुम्हारे सामने ही नहीं रखा
              पागल सा तुम में वही ढूंढता रहा
              जो तुमसे पाया करता था
              तुम्हारे जाने के बाद भी 
              ज़बरदस्ती खुद को यकीन दिलाता रहा           
              तुम वही हो तुम वही हो तुम वही हो                      
              रात बीती सहर का अजान सुरीला नहीं था
              नींद जो भागी थी उन्ही लम्हों की खोज में
              लोटी भी हैरान परेशान
              मुझे देखा उसने सुबह ७ बजे तक
              खुद को दिलासा देते हुए!
              नींद ने भी फटकारा,कहा
              मैं आई हूँ आगोश में आओ
              उसको झटक दिया दिहाड़ी की फिक्र मैं
              अनायास ही ज़हन कौंधा
              तुम निकल गई आगे हम ही क्यों अटके रहे???  

सोमवार, 16 नवंबर 2009

आज एक पाती तुम्हारे नाम-(मसूरी के गनहिल से लौटकर)


आज एक पाती तुम्हारे नाम-
याद है ना देवदार के इस पार हम
और उस पार दूर देश में बरफ़ का घर
कैसे चमक रहा था
छंटते-बढ़ते बादल
नक्कासी काढ रहे थे वहां दूर
उस बर्फीले तम्बू पर!

हम बैठे थे सबसे ऊँची छत पर
पत्थरों की कुर्शी बनाई
एक पर तुम बैठी एक पर मैं
मैं ज़ज्बातों में बहता
बौराया सा,घूरता कभी सफ़ेद
कभी हरे आसमां में घुसे टीलों को
और तुम झून्झलाती मुझ बौर पे!

कितनी सर्दी थी ना
हम दिल्लीवाले कैसे किड़क रहे थे कभी-कभी
बादल भी चेपू से
कभी जाते भी तो थोड़ी देर में लौट आते
गुस्से को अन्दर ही अन्दर चबाते
एक भी डांट नहीं सुनाई हमने बादलों को
सुनाते भी कैसे तब,आजू-बाजु वाले सब
यूँ ही तो कह रहे थे ये बादलों का डेरा है!

खामोशी की भी गूंज होती है
तभी तो पता चला था
कान सीं-सीं कर बज रहे थे
हमारी जुड़वाँ तन्हाई में
पता नहीं धोखे से घंटो कैसे बीते
क्यूंकि हमने तो इतनी कोशिश करी थी 
वक़्त को थामने की!

खैर दगाबाज वक़्त ना ठहरा
ना सही
यादें तो अपनी हैं
जिनको इतने करीने से सजायी है मैंने तुम्हारे लिए!
इसलिए आज एक पाती तुम्हारे नाम----------

बुधवार, 4 नवंबर 2009

फागुन की धूप में छत पर.....


सर्दी से सीली हुई रजाई
छत पर सुखाने धूप में,
मैं भी जाया करता था छत पर,
अब सालों बाद वो रजाई तो नहीं
पर कुछ सीली हुई सी यादें जरूर हैं!
                   अलसाये हुए होते दिन भी थोड़े-थोड़े,
                   सूखती रजाई की तह पे लेट,
                   ऑंखें थोड़ी खुली,थोड़ी मूंदी हुई सी
                   कुछ हसरतें भी सुखाया करते थे!
                   वो मालिस करती धुप
                   गुदगुदी और शुरूर दोनों भरा करती थी,
                   और हम नई जवानी के किनारे
                   अल्हड़ हो,सुखाते-सखाते ना जाने
                  किसकी गेसुओं में खो जाया करते थे!
सर्दी का गाँव भी बड़ा निराला था!
पीले-पीले फूल होते थे सरसों के,
बथुआ,पालक,मटर के लते,लगाते
पीले पर हरे का तड़का,
दिखता था ये सब साफ-साफ,
खेतों के बीच बसे मेरे घर की छत से.....
दिन तो अब भी होतें हैं पर वो नहीं
जो होते थे फागुन की धूप में छत पर.....

                  
              

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

नश्ल-नश्ल के लोग


इस कुनबे में ना जाने कितनी नश्ल के लोग रहते हैं!
              तुम मिलो तो हैं तुम्हारे भाई!
              मैं मिलूं तो मेरे बन जायेंगे!
              सरको बस थोड़ी दूर गर सामने से,
              प्यारे,गालियों की इनायत बरसाएंगे!
अब क्या कहें इनके बारे में,कहते हुए थक जायेंगे!
              रहना सावधान,वरना बाबू,
              आगे नहीं,पीछे से मुक्का लहरायेंगे!
समझो ना,इस कुनबे में कितनी नश्ल के लोग रहते हैं!
              एक बेचारे वो भी हैं,इसी में,
              सामने की तारीफ पर ललचायेंगे!
              ना समझ खेल-खिलाडी की इन बातों को,
              मुफ्त में मारे जायेंगे,
              अब हम ही क्यूँ समझाएं,
              समझे नहीं तो खुद ही फंस जायेंगे!
कम से कम अपने लिए ही सही,होशियार तो होना पड़ेगा!
क्यूंकि इन्ही दड़बों में उंच-नीच तमाम प्रयोग होते है!
समल्हना प्यारे,तुम्हारे बीच ही नश्ल-नश्ल के लोग रहते हैं!!!!!!!!

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

बिहारी से दिल्लीसेटवा तक


बिहार का सिवान स्टेशन खचाखच भरा हुआ था शायद वैशाली के आने का समय हो रहा था!स्टेशन पर लोग ही लोग थे! वैशाली एक्सप्रेस दिल्ली की तरफ आती है,स्टेशन पर लगा मेला भी दिल्ली आनेवालों का ही था! मेले में कुछ साफ सुथरे कपडे पहने सलीकेदार अंदाज़ में किनारे खड़े थे तो वहीँ ज्यादातर स्टेशन पर दरी बिछाये बैठे लेटे पड़े थे! हाँ जो साफ सुथरे नहीं थे उनका हुलिया बताना भी जरूरी है,ये वही लोग थे जिनको दिल्ली और आस-पास के शहरों ने एक ब्रांड से नवाज़ दिया है(बिहारी ब्रांड), हाँथ में झोरा(थैला),सर पर बोरा(सामान से भरा कट्टा),पास में रखा टीन का बक्सा!कपडे पहनने का अंदाज़-पैर में खरोच खाया हुआ चमड़े का जूता,५-७ साल पहले से इस्तेमाल हो रही जींस,ऊपर लटकता हुआ रंगीन कुरता,साथ में मेहरारू (पत्नी) और लईका (बेटा)!बड़े जोश में खड़े थे सब,गांव से दिल्ली जो जाना है!भोजपुरी में नहीं हिंदी में बतिया रहे थे!
      मैं इधर दिल्ली से जाने वाली वैशाली से उतरा सिवान स्टेशन पर,मेरे एक चचेरे चाचा हैं वो मेरा इंतजार कर रहे थे!मिटटी की खुशबू बड़ी प्यारी होती है मैं भी उस के रश में भाव-विभोर हो गया,जोश में हम भी बहार निकालने लगे,पर में चाचा भिनभिना रहे थे भीड़ से पर पाने में!एक भिनभिनाहट कुछ यूँ थी 'अरे इ सब दिल्ली सेटवा बसवा देले बाडन सा' मतलब दिल्लीसेट लोगों ने गंध मचा दिया है!मेने पुछा(भाई इ कहे कह तारा)एसा क्यों कह रहे हो ये तो यहीं अपने गाँव के लोग हैं!बड़े व्यंगातमक लहजे में जवाब मिला अरे सब जाके वहा जाके मजदूरी ही तो करते है साले दिल्लिसेट!!!!!!!में हैरत में पड़ गया क्योंकि मैं दिल्ली में स्तरहीन स्थानियों से मैले कुचले लोगों के लिए एक ही संबोधन सुना करता हूँ ,चल बिहारी कहीं का!!!तो क्या सिवान स्टेशन की वो भीड़ पाकिस्तान में गए भारतीय मुसलमानों (मोहाजिर) जैसी है???ना यहाँ के ना वहां के!!!!!!

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

मैं


मैं सम्पूर्ण नहीं हूँ,
पर मैं भी तो हूँ ना,
मैं इश्वर कब था,
मैं इश्वर कब हूँ?
फिर ये शोर क्यों?
सुधर जाओ-सुधर जाओ
की कर्कश आवाजें क्यों?

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

कराह

११ सितम्बर २००८ याद है मुझे, तब बिहार में बाढ़ की वजह से हरियाणा में थर्मल पॉवर प्लांट के लिए कोयले की आपूर्ति प्रभावित हो रही थी, उस दिन हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को प्रगति मैदान में किसी समरोह में शिरकत करने आना था! मेरा ऐसाईंमेंट था सीएम साहब को घेरना का,थर्मल पॉवर प्लांट में कोयले की कमी हो रही है बाढ़ की वजह से और सरकार के पास दूरदर्शी योजना क्यों नहीं,विषम परिस्थितियों में प्लांट को सुचारू रूप से चलाने की! मैंने कैमरामैन विद्या को साथ लिया,विद्या ने कैमरा इन्टर्न को साथ लिया और हम तीनो पहुंचे प्रगति मैदान!वहां सीएम साहब तो थे नहीं पर pwd मंत्री अजय यादव मिले उनसे ही सवाल-जवाब कर खानापूर्ति की!
वहां से ऑफिस के नीचे आया ही था की मनीष पांडे की कॉल आ गई,"आज सीपी में हूँ समय हो तो मिलिए".मैं भी राजी हो गया क्योंकि कई दिनों साथ बैठने का प्रोग्राम बन रहा था!मैंने रिकार्डिंग की टेप एक लड़के से ऑफिस में  दिया और निकल लिया मनीष जी के साथ!बाराखम्भा के सामने इनर सिर्किल में पेट्रोल पम्प के सामने दुकान है,बियर ली और गाड़ी वापस बाराखम्भा की और मोड़ लिए चूँकि वेस्टर्न कोर्ट जाना था!लालबत्ती पर ही खड़े थे की जोर का धमाका हुआ.कुछ समझ नहीं आया की क्या हुआ!इंडिगो हिचकोले खा गई थी!ज़मीन पे तो सन्नाटा छा गया पर असमान कबूतरों के चीख-पुकार से गूंजने लगा!सामने देखा तो बाराखम्भा बसस्टैंड के सामने इक्के दुक्के लोग भागा-दौड़ी कर रहे थे,आशंका हकीक़त में बदल गई!बाराखम्भा रोड पर ज़बरदस्त बम धमाका हुआ था!आव देखा ना ताव अनूप जी को कॉल करते दौड़ पड़ा की नीचे कैमरा भेजिए मैं हूँ ब्लास्ट हुआ है!स्पॉट पर पहुंचा वहां ओम्लेट जलने जैसी बू आ रही थी,इंसानों के जले अंग की बू थी!कोई कराह रहा था तो कोई सो गया था!कराह को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाउँगा क्योंकि उस कराह की कानजलाऊं आवाज़ मैंने ज़िन्दगी में पहली बार सुनी थी!ये सब देखकर पल भर के सन्न रहा फिर शुरू हुआ कैमरे के सामने माइक पकड़ कर पेशे का प्रबंधन!लगे रहे मेरे तमाम सहयोगी भी जो की मिनटों के अन्तराल में नीचे आ गए थे!ये,मैं कहानी नहीं लिख रहा पर पता नहीं क्यों कल से वो पूरा दर्दनाक वाकया आँखों के सामने घूम जा रहा है,वो बू भी नथुनों में घुसी सी जा रही है और वो अजीब कराह कानों में शोर कर रहा है!उस दिन से लेकर अबतक तो प्रोफेसनल था मैं, ये अजीब क्यूँ हो रहा है मेरे साथ???क्या उनके साथ भी कभी,वर्षों बाद ही सही होता होगा,जो इस पूरे दर्दनाक मंज़र का ताना बना रचते हैं??????????????????http://www.youtube.com/watch?v=JwRG03AIX_4&feature=related

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

मैले की दिवाली

आज लक्ष्मी नगर से V3S की तरफ जा रहा था!
        मैं अपने गमो में डूबा हुआ जा रहा था,
        अबकी ये कैसी दिवाली आई,
        इतनी चहल पहल के बिच मेरे लिए वीरानी लायी,
        बड़ा उदास था,निराश था,हताश था!
        बिल्डिंगों पे लड़ियाँ थीं,
        हीरा स्वीट्स के पास,मिठाई खरीदने वाले थे!
        आस-पास तमाम गाडियां थीं,
        मैं गाड़ियों के बिच अकेला,
       कोई ना मेरे साथ था!
मैं लक्ष्मी नगर से V3S की तरफ जा रहा था!
        मैं अपनी बेबसी पर झुंझलाता,
        अपनी नौकरी पर खिसिया रहा था!
        गर मीडिया की मगजमारी में ना होता!
        तो मम्मी के पास होता,
        यही सब सोच कर
        खुद पर बिफरा जा रहा था!
मैं लक्ष्मी नगर से V3S की तरफ जा रहा था!
       मैं लपका रिक्शे वाले की तरफ,
       बाबा V3S तक चलोगे?कितने में?
       १५ लूँगा!रक़म ज्यादा लगी पर चढ़ बैठा!
       उसकी उम्र होगी,यही कोई ६० साल,
       कपड़े का रंग था नीला,
        रिक्शे वाला मैला था,
        शर्ट पे नीला रंग कम,
        सफ़ेद परतें ज्यादा थीं,
        ये परतें पसीनें की पहचान थीं,
मैं V3S की तरफ रिक्शे पर चला जा रहा था,
     पसीनें की परतों को देखता,सोचता,
     इस को दिवाली की छुट्टी क्यों नहीं मिली?
    ये तो बुजुर्ग है,इसके तो बाल-बच्चे भी होंगे?
    फिर इसको छुट्टी............................
    .......................................?

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

ये तेरा मीडिया अफेयर क्या है?

ए बाबू मोशाय ब्लोग्मित्र तेरा मीडिया से क्या अफेयर है रे? मुझे पता है,चल तू बतायेगा नहीं,तू तो खाली सुनता है!तुझे अपने काया पर कलम की चित्रकारी पसंद है!तमाम आते हैं,बटन दबा कर चले जाते हैं और तू खिलाडी मज़े लेता है,बिना कुछ कहे!मुझे पता है तू बड़ा सयाना है,चुप्पी साधे सबकी रचना,निजी कुंठा और कुछ की भड़ास देख अकेले में बड़ा हँसता है!मैं सब जनता हूँ पता है क्यों?भले ही तेरी मेरी दोस्ती देर से हुई है(ब्लॉग पर ज्यादा दिन नहीं हुए मुझे)पर ये जो तेरा मीडिया अफेयर है ना इस पे मेरी नजर होती थी, www.blogspot.com पे जाकर तेरे तमाम प्रेमियों से तेरे प्रेमालाप को चुपके से झांक लिया करता था!इन प्रेमियों में ज्यादातर, संचार माध्यमों वाले तो ऐसे दिखते थे जैसे वो पुरानी दिल्ली के कल-पुर्जे के बाज़ार में वो कुछ अजीब से लोग थकान मिटाने जाते हैं ना वैसे!कोई राजनितिक मसले लिए बैठा है,मसले की जानकारी हो ना हो क्या फर्क पड़ता है तो कोई किसी को अपनी कुंठाओं तले दबा के पेले जा रहा है और तू है की कुछ बोलता नहीं कॉलेज की स्मार्ट लड़की की तरह जो सबपे मुस्कान बिखरेती है और इसी मेहरबानी पर फ़िदा मीडियाकर्मी तेरे रग-रग पे उँगलियाँ फिराते रहते हैं!
अब तू मुझे गालियों का गुलदस्ता मत भेजियो ये सोचकर की मैं भी मीडिया का ही हूँ!क्या करूँ यार मानता हूँ की मीडिया का ही हूँ,वो भी टी.वी मीडिया का,जो दिखता है वो ही दिखाने का मन करता है,हेर फेर करूँ तो स्टोरी बेमजा हो जाये!
यहाँ पजामा पत्रकार भी तो बहुत घुस गए हैं और भोकाल बांधन-प्रक्रिया ऐसी, की ग्लैमर छा गया है,नए बच्चे भी भोकाली बन ही संचार तंत्र की पहली सीढ़ी पर क़दम रखते हैं!अब बात चली है तो बता ही दूँ मानवीय संवेदना ताक पर चली गई है पत्रकारिता में और राहुल गाँधी की रायबरेली की रतजगिया के साथ दलित के घर में रोटी खाने की खबर लाइमलाइट में है!राहुल बाबा की जींस,कुरता-पजामा चर्चा में है और मेरे गांव का बेचारा,रामबदन राम,राम-राम भजते रोटी की उम्मीद में मर जाता है! मैं ये सब देखता रहता हूँ पर अब तेरा सहारा मिला है दो-ढाई घंटे तेरे से बतिया कर मन हल्का करता हूँ!मैं क्रन्तिकारी कैसे बनूँ?सब मेरे पर बिफर जायेंगे,मीडिया का ताना बाना है ना!रोटी मैं यहीं से पाता हूँ और ये रोटी गयी तो में भी रामबदन राम की कहानी दुहराऊंगा! हाँ फर्क इतना होगा उस रामबदन राम(गांव वाले)और इस रामबदन राम(मनीष मासूम)में की मेरी कहानी दो-चार टी.वी चैनलों में सुर्खियाँ बन जायेगी क्योकि इसी मीडिया में स्टोरी लिखने वालों में दो-चार मेरे अच्छे मित्र हैं(महेंद्र वेद,नितेश दुबे,मनीष पांडे,विवेक वाजपई,ओम सिंह,अमित शुक्ला) वैसे दोस्त मेरे और भी बहुत हैं,नाम लिखूंगा तो दो पन्ने भरने पड़ जायेंगे ये अलग बात है की मुझे पता नहीं उनमे कितने सच्चे हैं, वरना क्या मिलेगा बाबा जी का घंटा?????????चल अब तू सो जा,मुझे भी कल खबर बांचना है!ज़हन में फिर कोई कीड़ा काटेगा तो तुझे उंगुली करूँगा!

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

ब्लॉगमित्र से मेरी बातचीत

ब्लोगिंग अच्छा है,कम से कम इसी बहाने ही सही,बतियाने का मौका तो मिला!थोड़ी देर पहले खबर पढ़ते-पढ़ते "बेचैनी"(दरअसल अपनी बेचैनी को कविता के सांचे में ढाला),को हमनवा बना अपनी बेचैनी को लोलिपोप चुसाने की कोशिश की!ड्रोपिंग से घर आया तो उतना मन नहीं था दारू पीने का जितना अमूमन होता है फिर भी सोचा की आज दो चार पैग लगा कर लिखा जाये!खैर अभी तक कांच के एक ही लाबब्लब ग्लास को हलक में डाला है,दूसरा आधा ख़त्म हो सामने पड़ा इंतजार कर रहा है मेरे हांथों के लिफ्ट का,मुझमे घुलने-मिलने को बेताब है!बहरहाल बात ब्लोगिंग की हो रही है!अच्छा फील हो रहा है,एक साथी मिला जो तर्क नहीं करता,जो मन में आया उसे इसके बॉडी पे चेप दिया!ठीक साथी इसलिए भी है क्योंकि ये इंसानी फितरत से अलग है,मैं कुछ भी लिख दूँ ,अपने तरीके से जायज़ ठहरा दूँ,टोकता नहीं है की भाई ये क्यों लिख दिया ये तो गलत है वरना इधर तो दारुबाज घनिष्ठ भी तर्क करना नहीं नहीं छोड़ते और हम ठहरे साला ठेठ स्वबात थोपू, अपनी बात ठोक कर रखने वाला या यूँ कहें अपने ही अंदाज़ में जीने वाला!कोई प्राइम मिनिस्टर हो, लाट गवर्नर हो या कुबेर की औलाद जाये मेरे ठेंगे पर सो इस लिहाज़ से तो उत्तम ही लगा!
(दूसरा पैग भी पूरा हुआ दो सिगरेट के साथ)लेकिन बलोड मित्र से बतियाने का मन कर ही रहा है,अलसा नहीं रहा हूँ !भई बात अपने अपने अंदाज़ की हुई है तो ब्लॉग मित्र को अपने अंदाज़ अपनी सोच का कुछ अंश बताते चलूँ -
देख भाई ब्लॉग मित्र,लोग आजकल नंगे नहीं घूमते,गर कोई घूमा तो गली देंगे, मारेंगे,थानेदार लाकअ़प में डाल देगा पर तुझे बताऊँ जब सबके बापों का बाप,जड़ पुरुष इस धरती पर आया होगा तो उसके लिए कपडे कौन बनाया होगा!लंगोट भी नहीं होगी तब शायद शायद तब!घूमता होगा ऐसे ही खुले सांड की तरह!जड़ स्त्री के साथ कभी चुबन तो कभी आलिंगन करता होगा,नतीजे में ये आज का सभ्य मानवों का संसार आ गया लेकिन ये सभ्य नहीं सयाने ज्यादा हुए,कपड़ा पहनना तो सिख लिया!नियम कानून के दायरे में बंध भी गए लेकिन कानून बनाते-बनाते प्रपंची ज्यादा हो गए!ये जितने, अपने आप को सभ्य कहते फिरते है,कानून की आड़ में दूसरे की मारते ज्यादा है!जहाँ ज़रुरत हैं वहां सफाई ऐसे देते हैं जैसे ओबामा के बाप हों और संसार का ठेका इन्ही के पास है!इन्ही में से कुछ निति निर्धारक ऐसा ताना-बाना रचते हैं जिसमे बेचारा इन्सान,इन्सान नहीं रह जाता,दब्बू हो हीनसान में बदल जाता है!अब हीनसन बेचारा करे तो क्या करे,अपनी दमित आत्मा ले कभी चाहरदिवारी में बीवी के साथ दो मिनट का तलातुम मचा सो जाता है या फिर सिस्टम से परेशां गलियां देने में इतना मशगूल हो जाता है कि  बीवी को करवटें बदलता छोड़ जाता है!
खैर में इस बात का हिमायती नहीं हूँ कि तुझे नंगा घूमने के लिए कहूँ,ये गलत होगा लेकिन ये एक प्रतीकात्मक उदाहरण था कि जड़ पुरुष नंगा घूम भी आबाद था और तू सभ्य पुरुष हो कपडे पहन भी बर्बाद है क्योंकि मसला तेरे कपड़े, तेरे जूते,तेरे
सऊर,तेरे अदब का नहीं तेरे मन का है!चल भई तुझे बहुत समझा लिया तू आराम कर क्योंकि तेरे जिस्म पर किबोर्ड से मेने भतेरी खरोंचें दे दीं!आराम करते करते मेरी बातों पर अमल करियो मैं मेरा ग्लास गटक अपने नाखूनों को आराम दूं........गुडनाईट ब्लॉगमित्र !

रात के १२ बजे टी.वी पर खबर पढ़ते-पढ़ते.....

क्या है इस बेचैनी की वजह,
ये तो बिना वजह की बेचैनी है,
खामखाह कोई वजह ढूंढ़,
वजह को बदनाम क्यों करूँ?

 ये मेरी अपनी ही कोई हमनवा है,
मेरी हमनवा बेचैनी!
वरना, हर कुछ तो है मेरे पास,
किसी फिल्मी डयलोग की तरह,
दौलत है,शौहरत है,हुश्न के मेले में भी शरीक होते हैं गाहे-बगाहे!
फिर काहे की बेचैनी,
मैं ही तुझे सताता हूँ,
बेवजह बेचैनी कह!

ना समझा तुझे आसानी से!
देर से ही सही,पर कोसते-कोसते तुझे,
तेरी ही छानबीन में लगा तो तुझे ही सबसे करीब पाया!
तेरी पोरों की आवाज़ भी सुनी जो कह रही थीं मासूम में तुम्हारे साथ रहूंगी,
उम्र भर!

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

आज के लिए

क्या और कहाँ से लिखूं अभी तय नही कर पा रहा हूँ,,,,पर उनकी चन्द लाइनें, जिनका मैं मुरीद हूँ..
                         
नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा


बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी
समकालीन विषयों पर गुफ्तगू और दिल की तमाम बातों के साथ मुलाकात होती रहेगी..........